गीता प्रेस, गोरखपुर >> सार संग्रह एवं सत्संग के अमृत कण सार संग्रह एवं सत्संग के अमृत कणस्वामी रामसुखदास
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प्रस्तुत पुस्तक में गीता के सार संग्रह एवं सत्संग के अमृत कणों का वर्णन किया गया है।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
गीता-सार
1. सांसारिक मोह के कारण ही मनुष्य
‘मैं क्या
करूँ और क्या नहीं करूँ’—इस दुविधा में फँसकर
कर्तव्यच्युत हो
जाता है। अतः मोह या सुखासक्तिके वशीभूत नहीं होना चाहिये
2. शरीर नाशवान् है और उसे जाननेवाला शरीर अविनाशी है—इस विवेक को महत्त्व देना और अपने कर्तव्य का पालन करना—इन दोनों में से किसी भी एक उपाय को काम में लाने से चिन्ता-शोक मिट जाते हैं।
3. निष्कामभावपूर्वक केवल दूसरों के हित के लिये अपने कर्तव्य का तत्परता से पालन करने मात्र से कल्याण हो जाता है।
4. कर्मबन्धन से छूटने के दो उपाय हैं—कर्मों के तत्त्वको जानकर निःस्वार्थभाव से कर्म करना और तत्त्वज्ञान का अनुभव करना।
5. मनुष्य को अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों के आने पर सुखी –दुःखी नहीं होना चाहिए; क्योंकि इनसे सुखी-दुःखी होनेवाला मनुष्य संसार से ऊँचा उठकर परम आनन्दका अनुभव नहीं कर सकता।
6. किसी भी साधन से अन्तःकरणमें समता आनी चाहिये। समता आये बिना मनुष्य सर्वथा निर्विकार नहीं हो सकता।
7. सब कुछ भगवान् ही हैं—ऐसा स्वीकार कर लेना सर्वश्रेष्ठ साधन है।
8. अन्तकालीन चिन्तन के अनुसार ही जीव की गति होती है। अतः मनुष्य को हरदम भगवान् का स्मरण करते हुए अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिये, जिससे अन्तकाल में भगवान् की स्मृति बनी रहे।
9. सभी मनुष्य भगवत्प्राप्ति के अधिकारी हैं, चाहे वे किसी भी वर्ण आश्रम सम्प्रदाय, देश, वेश आदिके क्यों न हों !
10 संसार में जहाँ भी विलक्षणता, विशेषता, सुन्दरता, महत्ता, विद्वता, बलवत्ता आदि दीखे उसको भगवान् का ही मानकर भगवान् का ही चिन्तन करना चाहिये।
2. शरीर नाशवान् है और उसे जाननेवाला शरीर अविनाशी है—इस विवेक को महत्त्व देना और अपने कर्तव्य का पालन करना—इन दोनों में से किसी भी एक उपाय को काम में लाने से चिन्ता-शोक मिट जाते हैं।
3. निष्कामभावपूर्वक केवल दूसरों के हित के लिये अपने कर्तव्य का तत्परता से पालन करने मात्र से कल्याण हो जाता है।
4. कर्मबन्धन से छूटने के दो उपाय हैं—कर्मों के तत्त्वको जानकर निःस्वार्थभाव से कर्म करना और तत्त्वज्ञान का अनुभव करना।
5. मनुष्य को अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों के आने पर सुखी –दुःखी नहीं होना चाहिए; क्योंकि इनसे सुखी-दुःखी होनेवाला मनुष्य संसार से ऊँचा उठकर परम आनन्दका अनुभव नहीं कर सकता।
6. किसी भी साधन से अन्तःकरणमें समता आनी चाहिये। समता आये बिना मनुष्य सर्वथा निर्विकार नहीं हो सकता।
7. सब कुछ भगवान् ही हैं—ऐसा स्वीकार कर लेना सर्वश्रेष्ठ साधन है।
8. अन्तकालीन चिन्तन के अनुसार ही जीव की गति होती है। अतः मनुष्य को हरदम भगवान् का स्मरण करते हुए अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिये, जिससे अन्तकाल में भगवान् की स्मृति बनी रहे।
9. सभी मनुष्य भगवत्प्राप्ति के अधिकारी हैं, चाहे वे किसी भी वर्ण आश्रम सम्प्रदाय, देश, वेश आदिके क्यों न हों !
10 संसार में जहाँ भी विलक्षणता, विशेषता, सुन्दरता, महत्ता, विद्वता, बलवत्ता आदि दीखे उसको भगवान् का ही मानकर भगवान् का ही चिन्तन करना चाहिये।
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